बाल विकास का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता, क्षेत्र, प्रकृति, प्रभावित करने वाले कारक तथा उद्देश्य  (d.el.ed 1st year books pdf)

बाल विकास का परिचय

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BTC/DELED

SEMESTER-1ST

विषय(Subject):- बाल विकास एवं सीखने की प्रक्रिया 

पाठ (Chapter):- 1 

पाठ नाम (Chapter name):- बाल विकास का अर्थ, आवश्यकता तथा क्षेत्र 


बाल विकास का अर्थ परिभाषा
बाल
विकास का अर्थ , परिभाषा,आवश्यकता
एवं क्षेत्र को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है –
बाल विकास का अर्थ (Child development Meaning)
विकास शब्द हमारे लिए नया नहीं है। विकास एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।जीवन के क्षेत्र में हम इसका प्रयोग करते आये है जो संसार के प्रत्येक जीव में पाई जाती है। विकास की यह प्रक्रिया गर्भधारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त किसी न किसी रूप में  चलती रहती है। हम देखते है जन्म से पूर्व की अवस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य में निरंतर परिवर्तन होते ही रहते है।  इसकी गति कभी तीव्र और कभी मन्द होती है। मानव विकास का अध्ययन मनोविज्ञान  की जिस शाखा के अन्तर्गत किया जाता है, उसे बाल-मनोविज्ञान कहा जाता है परन्तु अब मनोविज्ञान  की यह शाखा ‘बाल-विकास’ कही जाती है ।
बाल विकास के अंतर्गत बालक के जन्म के बाद किशोर अवस्था तक अनेक महत्वपूर्ण शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व को स्वरुप प्रदान करने में सभी परिवर्तन व्यवस्थित एवं समानुपात में होते है।  इस तरह होने वाला हर एक परिवर्तन पिछले परिवर्तन पर निर्भर करता है। बाल विकास का अर्थ आवश्यकता एवं क्षेत्र जो निम्न लिखित पक्षों में होते है –
  1. शारीरिक विकास 
  2. मानसिक विकास 
  3. भाषा विकास 
  4. संवेगात्मक विकास 
  5. सृजनात्मक विकास 
  6. सौन्दर्यात्मक विकास 
  7. नैतिक विकास 
  8. सामाजिक विकास 

बाल
मनोविज्ञान की परिभाषा
 
(Child Development- Definition)


क्रो और क्रो के अनुसार- ‘‘बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गभर्काल के प्रारम्भ से किशोरावस्था की प्रारम्भिक अवस्था तक करता है। ’’

थॉम्पसन के शब्दों में- ‘‘ बाल-मनोविज्ञान सभी को एक नयी दिशा में संकेत करता है। यदि उसे उचित रूप में समझा जा सके तथा उसका उचित समय पर उचित ढंग से विकास हो सके तो प्रत्येक बालक एक सफल व्यक्ति बन सकता है। “

गैसल के अनुसार -“विकास मात्र प्रत्यय या धारणा नहीं है। विकास का निरीक्षण किया जा सकता है, मूल्यांकन किया जा सकता है तथा मापन  सकता है। “

जेम्स ड्रेवर के अनुसार- ‘‘बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है। “

एण्डरसन के अनुसार-विकास में केवल कुछ इंचों की वृद्धि एवं कुछ योग्यताओं में सुधार ही निहित नहीं होता है वरन इसमें अनेक संरचनाओं तथा कार्यों के एकीकरण होने की प्रक्रिया निहित है। ” 

इंगलिश व इंगलिश के शब्दों में- “विकास प्राणी के शरीर में एक लम्बे समय तक होने वाला निरंतर परिवर्तन का एक क्रम है।  ये विशेषता वह परिवर्तन है जिनके कारण जन्म से लेकर परिपक्वता और मृत्यु तक प्राणी में स्थाई परिवर्तन होता है। ” 


हरलॉक के अनुसार- बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भधान से लेकर मृत्युपर्यन्त होने वाले मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करती है। “

वान डेन डेल के अनुसार-“विकास का तात्पर्य गुणात्मक परिवर्तनों से है। “

बाल विकास की विशेषताएं

बालक के विकास के मुख्यतः तीन चरण होते है। शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था  

शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ-

  1. दोहराने की प्रवृत्ति-शैशवावस्था में शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है।
  2. शारीरिक विकास में तीव्रता -शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षो में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। विकास की इस क्रिया की गति तीन वर्ष के बाद धीमी हो जाती है। उसकी इंद्रियों, आंतरिक अंगों और मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है।
  3. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता -शैशवावस्था में शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्र होती है, और वह अनेक आवश्यक बातों को तुरंत लिख लेता है।
  4. कल्पना की सजीवता -चार वर्ष के बालक की कल्पना में बहुत सजीवता होती है। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं का पाता है। फलस्वरूप, वह झूठ बोलने जैसा लगता है।
  5. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति -शैशवावस्था में शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि के कार्यो और व्यवहार का अनुकरण करता है।
  6. आत्म प्रेम की भावना-शैशवावस्था में शिशु अपने माता, पिता, भाई, बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा किसी और को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता हैं, तो उसे उससे ईष्यों होने लगती है।
  7. नैतिकता का विकास -शैशवावस्था में शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है।
  8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार -शैशवावस्था में शिशु का अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृतियां होती हैं, यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुह में रख लेता है।
  9. सामाजिक भावना का विकास-शैशवावस्था के अन्तिम वर्षो में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। छोटे भाईयों, बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपने वस्तुओं और खिलौनों को दूसरे के साथ साझा करता है।
  10. दूसरे बालकों में रूचि या अरुचि-शैशवावस्था में शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, लेकिन जल्द हि यह रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगता है।
  11. दूसरों पर निर्भरता-जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है, उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने क लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  12. संवेगों का प्रदर्शन -दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हौ जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं– भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।
  13.  मानसिक क्रियाओं की तीव्रता -शैशवावस्था में शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती हैं।
  14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति -शैशवावस्था में शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपने खिलौने में तरह-तरह के प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसक भागों को अलग अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बात्तों और वस्तओं क बारे में “क्यों” और “कैसें” प्रश्न पूछता है।
  15. काम-प्रवृत्ति-बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शैशवावस्था में काम-प्रवृत्ति वहुत प्रबल होती है, पर वयस्को के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं।
  16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृति -शैशवावस्था में शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। बहुत छोटे में शिशु अकेले खेलना पसंद करते हैं। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में ज्यादा रुचि लेता है।
बाल्यावस्था की विशेषतायें
  1. संवेगों पर नियंत्रण-बाल्यावस्था में बालक अपने संवेगों पर अघिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता हैं। वह ऐसी भावनाओं को छोड़ देता है, जिसके बारे में उसके माता-पिता, शिक्षक और बड़े लोग बुरा बताते हैं।
  2. मानसिक योग्यताओं में वृद्वि-बाल्यावस्था में बालक की मानसिक क्षमता में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है।
  3. प्रवृत्ति-बाल्यावस्था में बालक में काम प्रवृत्ति की भावना न के बराबर होती है। बाल्यावस्था में बालक अपना समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढने-लिखने आदि कार्यों में व्यतीत करता है।
  4. वास्तविक ज्ञान का विकास -बाल्यावस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जीवन को छोड़कर वास्तविक दुनिया में प्रवेश करता है। वह दुनिया की प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
  5. सामूहिक प्रवृत्ति-बाल्यावस्था में बालक की सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दोस्तों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। बालक की सामूहिक खेलों में अत्याधिक रूचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष आयु में छोटे समूहों में खेलता है।
  6. विकास में स्थिरता-6 से 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमता को मजबूती प्रदान करती हैं। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है।
  7. सहयोग की भावना-बाल्यावस्था में बालक विद्यालय के छात्रों और अपने दोस्तों के समूह के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। बाल्यावस्था में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे- सहयोग, सदभावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि।
  8. नैतिक गुणों का विकास-बाल्यावस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। बालक में न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की समझ का विकास होने लगता है।
  9. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का निर्माण-शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, और बाल्यावस्था में बाहरी दुनिया में उसकी रुचि बढ़ जाती है और उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है।
  10. संग्रहीकरण की प्रवृत्ति-बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं उनको अनोखी लगने वाली चीजों का संग्रह करने की प्रवृत्ति आ जाती है। बाल्यावस्था में बालक बिशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थरो के टुकडों का संचय करना पसंद करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुडियों और कपडों के टुकडों का संग्रह करने की रुचि पाई जाती है।
  11. जिज्ञासा की प्रबलता -बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा बिशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
  12. बाल्यावस्था में बालकों में बिना किसी उददेश्य के इधर-उधर घूमने की लालसा वहुत अघिक होती है। बाल्यावस्था में बालक में विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं।
  13. रचनात्मक कार्यों में रूचि-बाल्यावस्था में बालक को रचनात्मक कार्यो में बहुत आनन्द आता है। वह साघारणत: घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है।

किशोरावस्था की विशेषताएं 

  1. किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस अवस्था  में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्त्तन होते है, जैसे-वजन और लम्बाई में तेजी से बृद्धि, मांसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढता। किशोरावस्था में किशोर में दाढी और पूंछे के रोएं आना शुरू हो जाता है, और किशोरियों में मासिक धर्म की शुरुआत होती है।
  2. किशोरावस्था में ही बालक एवं बालिकाओं में अपने सपनों में ही खोये रहनी की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, और सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति में भी वृद्धि होती है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के बहुत सारे मित्र होते हैं, लेकिन वह केवल एक या दो लोगों से ही घनिष्ठ मित्रता रखना ज्यादा पसंद करते हैं।
  3. किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। इसलिए वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्ग प्रकार का व्यवहार करतें हैं।
  4. किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन भी कहा है, क्योकि किशोर इस अवस्था में किशोरों के बहुत से व्यवहार एक शिशु की तरह होते हैं। किशोरावस्था में किशोरों में इतनी उद्विग्नता या व्याकुलता होती है, कि वह एक शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और वातावरण से समायोजन नहीं कर पाता है।
  5. किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की भावना बहुत प्रबल होती है। किशोरावस्था में किशोरों मैं बड़ों की आज्ञा मानकर स्वतंत्रत तरीके से काम करने की प्रवृत्ति होती है। किशोरावस्था में यदि किशोरों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया जाता है, तो उनमें विद्रोह की भावना भी उत्पन्न होने लगती है।
  6. किशोरावस्था में कमेंद्रियों की परिपक्वता की और कामशक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। किशोरावस्था से पहले की अवस्था अर्थात बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में विषम लिंगों के प्रति आकर्षण होता है।
  7. किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में समूह की महत्वपूर्णता बहुत बड़ जाती है। किशोरावस्था वे अपने समूह को अपने परिवार और विद्यालय से अघिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
  8. 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, लेकिन उसके बाद उनकी रूचियों में धीरे-धीरे स्थिरता आने लगती थी। बालकों को मुख्य रूप से खेलकूद और व्यायाम में विशेष रूचि होती है। वहीं इसके विपरीत बालिकाओं में कढाई-बुनाई, नाच, गाने के प्रति ज्यादा आकर्षण रहता है।
  9. किशोरावस्था में किशोर में समाज सेवा की तीव्र भावना होती है। किशोरावस्था की शुरूआत में बालकों और बालिकाओं में अपने धर्म और ईश्वर में ज्यादा आस्था नहीं होती है, लेकिन धीरे-धीरे उनमें अपने धर्म के प्रति विश्वास उत्पन्न होने लगता है।
  10. किशोरावस्था के पहले बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछता है। लेकिन किशोरावस्था में आने पर वह इन सब बातों पर खुद ही सोंच-विचार करने लगता है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं में अपनी इच्छा, महत्वकांक्षा, निराशा, असफलता, प्रतिस्पर्धा, प्रेम में असफलता आदि कारणों से अपराध की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होने लगती है।
  11. किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और किसी अच्छे स्थान पर पहुंचने की तीव्र इच्छा होती है। किशोरावस्था में किशोर अपने भविष्य और अपने आगे के जीवन की दिशा चुनने की भी चिंता रहती है। 

बाल विकास की आवश्यकताएँ (Needs of Children Development

आधुनिक युग में बाल विकास का अध्ययन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है इस दिशा में हुए अध्ययन से बालकों के कल्याण के साथ ही साथ माता पिता को बालकों को समझने में बहुत ही सुविधा मिली है बाल विकास अनुसन्धान का एक क्षेत्र  माना जाता है। बालक के जीवन को सुखी और समृद्धिशाली बनाने में बाल-मनोविज्ञान का योगदान प्रशसंनीय है। मनोविज्ञान  की इस शाखा से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानव समाज का भी कल्याण हुआ है।जैसे- बालक के माता-पिता तथा अभिभावक, बालक के शिक्षक, बाल सुधारक तथा बाल- चिकित्सक आदि। बाल मनोविज्ञान के द्वारा हम बाल- मन और बाल- व्यवहारों के रहस्यों को भली-भाँति समझ सकते है। 


इस विषय के अध्ययन से शिक्षक, बाल-चिकित्सक, बाल सुधारक आदि सभी लाभवंतित हुए है। बाल मनोविज्ञान हमारे सम्मुख बालकों  के भविष्य की एक उचित रूपरेखा प्रस्तुत करता है। जिससे अध्यापक एवं अभिभावक बच्चे में अधिगम की क्षमता का सही विकास कर सकते हैं। बाल
विकास का अर्थ आवश्यकता
एवं
क्षेत्र, में किस अवस्था में बच्चे की कौन-सी क्षमता का विकास कराना चाहिए, इसका उचित प्रयोग अवस्थानुसार विकास के प्रारूपों को जानने के पश्चात् ही हो सकगेा। उदाहरण के लिए एक बच्चे को चलना तभी सिखाया जाए, जब वह चलने की अवस्था का हो चुका हो, अन्यथा इसके परिणाम विपरीत हो सकते हैं।

बाल विकास की आवश्यकता को निम्न प्रकार दिखा सकते है। 

  1. बालकों के स्वभाव को समझने में सहयोगी (Useful in Understanding the nature of Children )बालक के विकास का अध्ययन बाल- मनोविज्ञान में किया जाता है बालक के विभिन्न आयु-स्तरों पर बालक की विभिन्न व्यवहार-विशेषताओं का अध्ययन तथा विभिन्न व्यवहारों में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों का अध्ययन बाल-मनोविज्ञान में किया जाता है। विज्ञान की कोई दूसरी शाखा नहीं है जिसमे बालकों के व्यवहार, स्वभाव और विकास आदि का ज्ञान प्राप्त किया जा सके।  माता-पिता, शिक्षकों, बल-सुधारकों एवं बाल -निर्देशनकर्ताओं के लिए इस विषय का ज्ञान बहुत ही जरुरी है। 
  2. बालकों के शिक्षण और शिक्षा में उपयोगी (Useful in Child Training and Education)बालकों में सीखने की क्रिया का प्रारम्भ उसके जन्म के कुछ समय बाद ही प्रारम्भ हो जाता है।  समय के अनुसार जैसे-जैसे-बालक की मानसिक परिपक्वता बढ़ती जाती है उसके सीखने की क्षमता उतनी ही बढ़ती ही जाती है। इस तरह वह जटिल चीजों को सीखने के लिए वह अधिक और अधिक योग्य होता जाता है। 
बाल विकास के चरण
बाल विकास के तीन चरण होते है –
  1. शैशवावस्थ (जन्म से 6 वर्षो तक का विकास)
  2. बाल्यावस्था (6 वर्ष से 12 वर्ष तक का विकास)
  3. किशोरावस्था (12 वर्ष से 18 वर्षो तक का विकास)
बाल विकास का महत्व बालक के विकास के महत्व को उसके उसके जीवन के विकास की तीन अवस्थाये शैशवावस्थ,बाल्यावस्था, किशोरावस्था में निम्न प्रकार देखा जा सकता है। 
शैशवावस्था का महत्व 
इस अवस्था में बालक का व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, अर्थात इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है माता पिता के सहयोग से बालक जीवन के प्रथम दो वर्षों में अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्तिबालक को जीवन में जो कुछ बनना होता है, वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है।व्यक्ति में होने वाला कुल मानसिक का आधा विकास 3 वर्ष की आयु तक में ही हो जाता है।तथा सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की दूसरी अवस्थाओं की तुलना में तेजी से होता है । शैशवावस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के आने वाले जीवन का निर्माण किया जा सकता है, इसलिए शैशवावस्था में शिशु को जितना उत्तम और अच्छा निर्देशन दिया जाएगा उसका उतना ही अच्छा विकास होगा।
बाल्यावस्था का महत्व-
  1. बालक में बाल्यावस्था का काल 6 से 12 वर्ष माना जाता है। इस समयान्तराल  में बालकों तथा बालिकाओं के शरीर में विभिन्न तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं की लंबाई, वजन आदि में परिवर्तन होते हैं।
  2. इस अवस्था में बालक अथवा बालिका की हड्डियों में मजबूती के साथ ही साथ दृढ़ता तथा मजबूती आती है औरबालक तथा बालिका के दांतों में स्थाई पन आने लगता है। बाल्यावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र होती है।
  3. इस बाल्यावस्था में बालक के अंदर सूक्ष्म चिंतन की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था तक बालक विद्यालय में प्रवेश ले चुका होता है, बाल्यावस्था में बालक में परिवार के साथ-साथ अन्य लोगों के साथ भी उसकी सामाजीकरण प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था में विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण का भाव आने लगता है।
  4. बालकों के शब्दकोश में भी बहुत वृद्धि होती है। बाल्यावस्था में बालकों के अंदर आत्मनिर्भरता की सोच विकसित होने लगती है, और उनकी आदतों, रूचियों, मनोवृन्ति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त अंतर दिखाई देने लगता है।
किशोरावस्था का महत्व-
किशोरा अवस्था बालक के जीवन काल का सबसे कठिन काल है -क्योंकि बालक अथवा बालिका न तो वे बच्चे होते है और न ही व्यस्क, अर्थात यहाँ से एक ऐसी शुरुआत होती है जहा से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर आगे बढ़ता है। शारीरिक रूप से एक बालक तब किशोर बनता है उसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता की शुरुआत होती है। किशोरावस्था के आरंभ होने की निर्भरता बालक अथवा बालिका के आयु लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था औसतन 12 वर्ष से ही शुरू हो जाती है। किशोरावस्था का जीवन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योकि अवस्था में किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में जबरदस्त परिवर्तन होते हैं। 

बाल विकास के क्षेत्र 

बाल विकास के अध्ययन के क्षेत्र में बालक के विकास के सभी आयामों, स्वरूपों, असमानताओं, शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों तथा तथा उनको प्रभावित करने वाले तत्वों के अध्ययन किया जाता है।  बाल विकास का क्षेत्र वर्तमान समय में व्यापक तथ्यों को समाहित किये हुये है।  बल विकास के अंदर किसी एक तथ्य का अध्यययन नहीं किया जाता है बल्कि इसके अंतर्गत बालकों के सम्पूर्ण विकास का अध्ययन किया जाता है अर्थात बाल विकास का क्षेत्र शारीरिक, सामाजिक एवं मानसिक विकास के क्षेत्र से सम्बंधित है।  इसको समझने के क्षेत्र निम्न लिखित है –

  1. शारीरिक विकास 
  2. मानसिक विकास 
  3. संवेगात्मक विकास 
  4. चारित्रिक विकास 
  5. सामाजिक विकास 
  6. भाषा विकास 
  7. सृजनात्मकता का विकास 
  8. सौन्दर्य सम्बन्धी विकास 


बाल विकास की प्रकृति (Nature of Child Development)
क्रो एवं क्रो के अनुसार गर्भकाल के प्रारम्भ से किशोरावस्था की प्रारम्भिक अवस्था तक बाल विकास है।  इसमें पिता तथा माता के सूत्र के संयोग से जीवन की उत्पत्ति होती है। इस स्थित में बलक लगभग 40 सप्ताह अर्थात 280 दिन तक माँ के गर्भ में रहता है और यही से ही उसके विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। जब भ्रूण विकसित होकर पूर्ण बालक का स्वरुप ग्रहण कर लेता है , इस स्थित में प्राकृतिक नियमानुसार उसे ‘गर्भ ‘ से पृथ्वी पर आना ही पड़ता है।  तब बालक के विकास की प्रक्रिया प्रत्यक्ष रूप से विकसित होने लगती है। 
बालक के विकास पर वंशानुक्रम के अतिरिक्त वातावरण का भी प्रभाव पड़ने लगता है –
गैसले के अनुसार-“विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्व रखता है ,विकास का अवलोकन किया जा सकता है और किसी सीमा तक इसका मापन एवं मूल्यांकन भी किया जा सकता है, जिसके तीन रूप है- शरीर निर्माण , शरीर शास्त्रीय एवं व्यवहार के चिन्ह है।  

बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक 
बाल विकास को प्रभावित करने वाले करक निम्नलिखित है 
  1. मानसिक योग्यता 
  2. लिंग-भेद
  3. वर्ग-भेद 
  4. पारिवारिक वातावरण 
बाल विकास के अध्ययन के उद्देश्य 
बाल विकास के अन्तर्गत मुख्य निम्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर अध्ययन करते है –
  1. आयु, वृद्धि के फलस्वरूप बालक के शारीरिक,अनुपात,व्यवहार,रूचि तथा लक्ष्यों का अध्ययन करना। 
  2. परिवर्तन कब और किस रूप में होता है ?
  3. परिवर्तनों के कारणों का अध्ययन करना। 
  4. इन परिवर्तनों के फलस्वरूप व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना। 
  5. यह ज्ञात करना की क्या ें परिवर्तनों की भविष्यवाणी की जा सकती है ?
बाल विकास के सिद्धांत
बाल विकास के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण सिद्धानों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
  1. निरन्तरता का सिद्धान्त 
  2. समान प्रतिमान का सिद्धांत 
  3. विकास क्रम की  रूपता का सिद्धांत 
  4. परस्पर सम्बन्ध का सिद्धांत 
  5. एकीकरण का सिद्धांत विकास की दिशा का सिद्धांत आंशिक पुनर्बलन का सिद्धांत 
  6. वृद्धि एवं विकास की गति की दर एक-सी नहीं रहती 
  7. विकास सामान्य  विशेष की और चलता है 
  8. विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है 
  9. विकास लम्बवत सीधा न होकर वर्तुलाकार होता है 

बाल मनोविज्ञान क्वेश्चन आंसर

भारत में बाल विकास की शुरुआत कब हुई ?
बाल विकास का चार्ट

बाल विकास की अवस्थाएं पीडीऍफ़
बाल विकास की तीन अवस्थाएँ होती है –
  1. शैशवावस्था ( जन्म से 6 वर्षों तक)
  2. बाल्यावस्था (6 वर्ष से 12 वर्षों तक)
  3. किशोरावस्था  (12 वर्ष से 18 वर्षों तक)

बाल विकास की कितनी अवस्थाएं होती हैं
बाल विकास की तीन अवस्थाएँ होती है –
  1. शैशवावस्था ( जन्म से 6 वर्षों तक)
  2. बाल्यावस्था (6 वर्ष से 12 वर्षों तक)
  3. किशोरावस्था  (12 वर्ष से 18 वर्षों तक)
बाल विकास के जनक कौन है
बाल विकास का जनक जीन पियाजे को कहा जाता है 
महिला एवं बाल विकास क्या है?
महिला एवं बाल विकास का तात्पर्य शहरी, अर्ध-शहरी, यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर तथा आवास उपलब्ध कराना होता है जिससे की वे वहाँ आराम से एवं सुरक्षित रह सकें।

बाल विकास से क्या तात्पर्य है?
बाल विकास की कितनी अवस्थाएं होती हैं?
बाल विकास परियोजना अधिकारी
महिला बाल विकास विभाग की योजनाएं 2020
बाल विकास नोट्स
महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय
महिला बाल विकास परियोजना
बाल विकास की शुरुआत कब हुई?
बाल विकास के क्षेत्र कौन कौन से हैं?
शिक्षा मनोविज्ञान के जनक कौन हैं?
बाल मनोविज्ञान क्या है
किशोर मनोविज्ञान के जनक कौन है?
बाल विकास से आप क्या समझते है?
बाल विकास आंदोलन के जनक कौन है?

बाल मनोविज्ञान के सिद्धांत
बाल विकास के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण सिद्धानों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है
निरन्तरता का सिद्धान्त ,समान प्रतिमान का सिद्धांत ,विकास क्रम की  रूपता का सिद्धांत ,परस्पर सम्बन्ध का सिद्धांत ,एकीकरण का सिद्धांत विकास की दिशा का सिद्धांत आंशिक पुनर्बलन का सिद्धांत ,वृद्धि एवं विकास की गति की दर एक-सी नहीं रहती ,विकास सामान्य  विशेष की और चलता है ,विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है ,विकास लम्बवत सीधा न होकर वर्तुलाकार होता है | 

बाल मनोविज्ञान की किताब
मनोविज्ञान के जनक अरस्तु
प्राचीन मनोविज्ञान के जनक
बाल मनोविज्ञान का क्षेत्र
बाल मनोविज्ञान meaning in English

BTC/DELED उत्तर प्रदेश 
प्रथम वर्ष  (प्रथम प्रश्-पत्र) 
बालविकास एवं सीखने की प्रक्रिया 
सम्पूर्ण समाधान 



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